[In reply to a friend's poem on the ephemeral nature of clouds...] कविराज आपकी रचना ने बादलों का क्षणिक रूप है दर्शाया, लेकिन इसी छवि से बादलों ने आसमान को हर तरह से है सजाया | हर मन की आकृति को सजीव यूँ उकेरा आसमान के दामन में, कि अनजाने ही जुड़ गया रिश्ता इन मेहमानों से | बादलों से कृपया हों ना यूँ खफा, इन्हें भी खलता है होना यूँ जुदा | तभी तो ये रोते हैं, बरसते हैं, बारिश के पानी को तो पपीहे भी तरसते हैं | फिर क्यूँ ना हम भी इन्ही के रंग में रंग जाएँ, खुशियाँ और गम के फेर में इनसे मुह ना चुराएँ | प्रकृति के नियमों की ना कर सका है कोई अवहेलना, परिवर्तन है नियम सदैव, लगा रहता है मिलना-बिछुड़ना | फिर ये कैसा अपवाद ,ये कैसा भेद, कर रहा जो मन भ्रमित, क्या बादल की ही तरह मनुष्य भी नहीं कुछ पलों का मीत?